Thursday, February 22, 2018

कुरुक्षेत्र

















था पहले सपना मेरे अंदर?
या अब मैं सपने में जीता हूँ ?
थी प्यास वो पहले मेरे अंदर?
या अब मैं प्यास को पीता हूँ?


कहाँ से आये कहाँ चल दिये?
किस बात की होड़ लगी है?
घुट-घुट के जीना चाहूँ मैं क्यों?
किस बात की तलब जगी है?


अपेक्षा और चिंताओं का,
बोझ मैं कब से ढ़ो रहा हूँ,
कई रिश्तों से हाथ बंधे हैं
कुरुक्षेत्र में खड़ा रो रहा हूँ।


To be or not to be?
सवाल पूछना खता नहीं,
उत्तर तो है और कठिन
"नर" या "हाथी" पता नहीं।


कई प्रश्नों के चक्रव्यूह में,
खुद से ही रोज लड़ता हूँ मैं,
खुद के वार खुद ही सहकर,
खून से लथपथ गिर पड़ता हूँ मैं।


कृष्ण और अर्जुन आज भी हैं,
हथियार हैं बदले, किरदार नहीं,
महाभारत और गीता आज भी हैं, 

प्रश्न हैं बदले, आसार नहीं।

- सौरभ वैशंपायन